BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।

अथवा
भारतीय नीतिशास्त्र में पुरुषार्थ व्यवस्था की व्याख्या कीजिए।

उत्तर -

मनुष्य का सर्वांगीण विकास पुरुषार्थ के माध्यम से ही होता है। पुरुषार्थ मनुष्य का वह आधार है जिसके अनुगमन से वह जीता है तथा अपने विभिन्न कर्तव्यों का सम्पादन करता है। पुरुषार्थ से मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के साथ ही उसका सामाजिक विकास भी होता है।

मनुष्य का पुरुषार्थ - मनुष्य का पुरुषार्थ क्या होना चाहिए? इस प्रश्न पर सभी भारतीय विचारकों में मतभेद है। पुरुषार्थ का स्वरूप तथा देश, काल एवं उसकी प्राप्ति के साधन दोनों पर विचार निहित है। अगर मनुष्य का लक्ष्य उचित हो तथा उसे प्राप्त करने के साधन अनुचित या खराब हों तो वैसा पुरुषार्थ शुद्ध नहीं हो सकता है। भारतीय विचारकों के अनुसार पुरुषार्थ का निर्धारण दो दृष्टिकोण से हुआ (क) व्यावहारिक, तथा (ख) पारलौकिक। व्यावहारिक दृष्टिकोण से काम तथा अर्थ सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ हैं, लेकिन पाश्चात्य दृष्टि से धर्म तथा मोक्ष परम पुरुषार्थ हैं। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष मनुष्य के चार पुरुषार्थ हैं, जिन्हें हिन्दू नीतिशास्त्र में चतुर्वर्ग भी कहा गया है। इन्हीं पुरुषार्थों के बल पर व्यक्ति अपने समस्त कार्य उत्साह के साथ करता है। बाद में मोक्ष मानकर तीनों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ और काम) पर ही बल देता है जिसे त्रिवर्ग कहा गया है। पुरुषार्थों से ही मनुष्य बौद्धिक, नैतिक, शारीरिक, भौतिक और अध्यात्मिक विकास करता है। इस प्रकार मनुष्य लौकिक जीवन के प्रति जागरूक होते हुए पारलौकिक जीवन के प्रति उत्कंठित रहता है। वह अपने क्रियात्मक जीवन की अभिव्यक्ति धार्मिक भावना और आचारगत नैतिकता के द्वारा करता है। इस दृष्टिकोण से ही पुरुषार्थ लोक और परलोक दोनों के निमित्त किये जाने वाले कर्म में आस्था रखता है तथा दोनों में समन्वय करने का प्रयास करता है। भौतिक तथा आध्यात्मिक समृद्धि के बीच का संतुलित दृष्टिकोण ही पुरुषार्थ का सच्चा स्वरूप है। यह मध्यम मार्ग है, जिस पर चलकर मनुष्य अपने जीवन का वास्तविक सुख और तदनुरूप उद्देश्यों को प्राप्त करता है और अंत में परमब्रह्म की ओर उन्मुख होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है, जो उसके जीवन का चरम लक्ष्य होता है।

पुरुषार्थ के उद्देश्य - चारों पुरुषार्थ मनुष्य के चार उद्देश्य हैं। धर्म मानव को सन्मार्ग का दिग्दर्शन कराता है। धर्म के माध्यम से मनुष्य नैतिक सिद्धान्तों, विवेकशील प्रवृत्तियों और क्रियाओं को समझ सकने में समर्थ होता है। महाभारत में कहा गया है कि धर्म वही है जिससे किसी अन्य को कष्ट न हो। जो व्यक्ति धर्म का अनुकरण स्वयं अपने लिए करता है वह अन्धे के समान सूर्य की प्रभा से अछूता रहता है -

"कर्षणार्यो हियो धर्मो मित्राणामात्सनस्तया।
व्यसनं नाम तद् राजन् न धर्मः स कुधर्म तत् ॥
मस्य धर्मोहि धर्मार्थे क्लेथभाड़ न स पंडितः।
न स धर्मस्य वेदार्थ सूर्यस्यान्धः प्रभामिव ॥'

अर्थ - अर्थ मनुष्य की संतुष्टि और विभिन्न वस्तुओं को प्राप्त करने में उसकी अभिलाषा व्यक्त करता है। हिन्दू विचारकों द्वारा मनुष्य के जीवन में धनार्जन करने की प्रवृत्ति को पुरुषार्थ के अन्तर्गत रखकर मानव मन की स्वाभाविक आकांक्षाओं तथा प्रवृत्तियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। जीवन में भौतिक सुखों की पूर्ति अर्थ के उपार्जन और संग्रह से ही सम्भव है। अतः त्रिवर्ग के अन्तर्गत अर्थ मनुष्य का दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य है। भौतिक सुख अर्थ पर ही निर्भर है।

काम - काम मानव जीवन की सुखद और सहज अनुभूति है। काम के माध्यम से मनुष्य अपनी कामजनित भावना एवं वृत्तियों को संतुष्ट करता है। काम के द्वारा ही मनुष्य का विवाह तथा सन्तानोत्पत्ति सम्भव है। काम मानव जीवन का तीसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य है। यौन भावना के साथ सौन्दर्य अनुभूति की तुष्टि भी काम भावना से ही सम्भव है। महाभारत के अनुसार काम मन और हृदय का वह सुख है जो इन्द्रियों से निःसृत होता है -

"इन्द्रियाणां च पंचानाम् मनसो हृदयस्य च।
विपयें वर्तमानानां या प्रीतिरूप जायते।।
स काम इति में बुद्धि कर्मणां फलमुक्तम्।'

काम का स्थान त्रिवर्ग में सबसे बाद में आता है। काम को निश्चित सीमा तक ही स्वीकार किया गया है। काम और अर्थ से प्रभावित होकर मनुष्य केवल इन्हीं का अनुसरण न करे बल्कि अपने उच्च आदर्शों और नैतिक कर्तव्यों की प्राप्ति और पालन करे। हिन्दू नीतिशास्त्र में काम और अर्थ को साधन स्वीकार किया गया है, ये साध्य नहीं हैं। 

मोक्ष  - मोक्ष की प्राप्ति सभी व्यक्ति को नहीं हो पाती है, इसी कारण त्रिवर्ग की संयोजना करके उसके पालन का निर्देश दिया गया है। मोक्ष का सम्बन्ध आत्मा से है तथा परमात्मा और मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन से है। जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष के लिए मन और मस्तिष्क की शुद्धता आवश्यक है। मानव अपनी विभिन्न प्रकृति के कारण सांसारिक जीवन में प्रवृत्त रहता है। जब वह अपने कर्तव्यों, सत्कर्मों तथा सद्व्यवहारों से त्याग का मार्ग अपनाता है, तब वह निवृत्त हो जाता है। विश्व तथा उसके पदार्थों से यह निवृत्ति उसे आध्यात्मिकता की ओर ले जाती है। वह यहाँ प्रवृत्ति और निवृत्ति में समन्वय स्थापित करता है। इस स्थिति में वह सभी बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है तथा चारों पुरुषार्थों के महत्व और अन्तर को समझने लगता है। पुरुषार्थ सम्बन्धी यह ज्ञान उसके व्यक्तित्व का निर्माण और विकास करता है। इस दृष्टि से पुरुषार्थ मानव जीवन के समग्र स्वरूप का उन्नयन करता है तथा मानव जीवन को नियमित, संयमित और निर्देशित करता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से समन्वित पुरुषार्थ व्यक्ति अपने निवृत्तिमूलक व्यक्तित्व का निर्माण करता है, जिस कारण व्यक्ति धर्म का अनुसरण करते हुए सांसारिक सुख का उपभोग करता है और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। अतः स्पष्ट है कि हिन्दू नीतिशास्त्र के चार स्तम्भ हैं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। इस चतुर्वर्ग में नैतिक, भौतिक और आध्यात्मिक तत्वों का अनुपम समन्वय है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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