बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
अथवा
भारतीय नीतिशास्त्र में पुरुषार्थ व्यवस्था की व्याख्या कीजिए।
उत्तर -
मनुष्य का सर्वांगीण विकास पुरुषार्थ के माध्यम से ही होता है। पुरुषार्थ मनुष्य का वह आधार है जिसके अनुगमन से वह जीता है तथा अपने विभिन्न कर्तव्यों का सम्पादन करता है। पुरुषार्थ से मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के साथ ही उसका सामाजिक विकास भी होता है।
मनुष्य का पुरुषार्थ - मनुष्य का पुरुषार्थ क्या होना चाहिए? इस प्रश्न पर सभी भारतीय विचारकों में मतभेद है। पुरुषार्थ का स्वरूप तथा देश, काल एवं उसकी प्राप्ति के साधन दोनों पर विचार निहित है। अगर मनुष्य का लक्ष्य उचित हो तथा उसे प्राप्त करने के साधन अनुचित या खराब हों तो वैसा पुरुषार्थ शुद्ध नहीं हो सकता है। भारतीय विचारकों के अनुसार पुरुषार्थ का निर्धारण दो दृष्टिकोण से हुआ (क) व्यावहारिक, तथा (ख) पारलौकिक। व्यावहारिक दृष्टिकोण से काम तथा अर्थ सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ हैं, लेकिन पाश्चात्य दृष्टि से धर्म तथा मोक्ष परम पुरुषार्थ हैं। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष मनुष्य के चार पुरुषार्थ हैं, जिन्हें हिन्दू नीतिशास्त्र में चतुर्वर्ग भी कहा गया है। इन्हीं पुरुषार्थों के बल पर व्यक्ति अपने समस्त कार्य उत्साह के साथ करता है। बाद में मोक्ष मानकर तीनों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ और काम) पर ही बल देता है जिसे त्रिवर्ग कहा गया है। पुरुषार्थों से ही मनुष्य बौद्धिक, नैतिक, शारीरिक, भौतिक और अध्यात्मिक विकास करता है। इस प्रकार मनुष्य लौकिक जीवन के प्रति जागरूक होते हुए पारलौकिक जीवन के प्रति उत्कंठित रहता है। वह अपने क्रियात्मक जीवन की अभिव्यक्ति धार्मिक भावना और आचारगत नैतिकता के द्वारा करता है। इस दृष्टिकोण से ही पुरुषार्थ लोक और परलोक दोनों के निमित्त किये जाने वाले कर्म में आस्था रखता है तथा दोनों में समन्वय करने का प्रयास करता है। भौतिक तथा आध्यात्मिक समृद्धि के बीच का संतुलित दृष्टिकोण ही पुरुषार्थ का सच्चा स्वरूप है। यह मध्यम मार्ग है, जिस पर चलकर मनुष्य अपने जीवन का वास्तविक सुख और तदनुरूप उद्देश्यों को प्राप्त करता है और अंत में परमब्रह्म की ओर उन्मुख होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है, जो उसके जीवन का चरम लक्ष्य होता है।
पुरुषार्थ के उद्देश्य - चारों पुरुषार्थ मनुष्य के चार उद्देश्य हैं। धर्म मानव को सन्मार्ग का दिग्दर्शन कराता है। धर्म के माध्यम से मनुष्य नैतिक सिद्धान्तों, विवेकशील प्रवृत्तियों और क्रियाओं को समझ सकने में समर्थ होता है। महाभारत में कहा गया है कि धर्म वही है जिससे किसी अन्य को कष्ट न हो। जो व्यक्ति धर्म का अनुकरण स्वयं अपने लिए करता है वह अन्धे के समान सूर्य की प्रभा से अछूता रहता है -
"कर्षणार्यो हियो धर्मो मित्राणामात्सनस्तया।
व्यसनं नाम तद् राजन् न धर्मः स कुधर्म तत् ॥
मस्य धर्मोहि धर्मार्थे क्लेथभाड़ न स पंडितः।
न स धर्मस्य वेदार्थ सूर्यस्यान्धः प्रभामिव ॥'
अर्थ - अर्थ मनुष्य की संतुष्टि और विभिन्न वस्तुओं को प्राप्त करने में उसकी अभिलाषा व्यक्त करता है। हिन्दू विचारकों द्वारा मनुष्य के जीवन में धनार्जन करने की प्रवृत्ति को पुरुषार्थ के अन्तर्गत रखकर मानव मन की स्वाभाविक आकांक्षाओं तथा प्रवृत्तियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। जीवन में भौतिक सुखों की पूर्ति अर्थ के उपार्जन और संग्रह से ही सम्भव है। अतः त्रिवर्ग के अन्तर्गत अर्थ मनुष्य का दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य है। भौतिक सुख अर्थ पर ही निर्भर है।
काम - काम मानव जीवन की सुखद और सहज अनुभूति है। काम के माध्यम से मनुष्य अपनी कामजनित भावना एवं वृत्तियों को संतुष्ट करता है। काम के द्वारा ही मनुष्य का विवाह तथा सन्तानोत्पत्ति सम्भव है। काम मानव जीवन का तीसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य है। यौन भावना के साथ सौन्दर्य अनुभूति की तुष्टि भी काम भावना से ही सम्भव है। महाभारत के अनुसार काम मन और हृदय का वह सुख है जो इन्द्रियों से निःसृत होता है -
"इन्द्रियाणां च पंचानाम् मनसो हृदयस्य च।
विपयें वर्तमानानां या प्रीतिरूप जायते।।
स काम इति में बुद्धि कर्मणां फलमुक्तम्।'
काम का स्थान त्रिवर्ग में सबसे बाद में आता है। काम को निश्चित सीमा तक ही स्वीकार किया गया है। काम और अर्थ से प्रभावित होकर मनुष्य केवल इन्हीं का अनुसरण न करे बल्कि अपने उच्च आदर्शों और नैतिक कर्तव्यों की प्राप्ति और पालन करे। हिन्दू नीतिशास्त्र में काम और अर्थ को साधन स्वीकार किया गया है, ये साध्य नहीं हैं।
मोक्ष - मोक्ष की प्राप्ति सभी व्यक्ति को नहीं हो पाती है, इसी कारण त्रिवर्ग की संयोजना करके उसके पालन का निर्देश दिया गया है। मोक्ष का सम्बन्ध आत्मा से है तथा परमात्मा और मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन से है। जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष के लिए मन और मस्तिष्क की शुद्धता आवश्यक है। मानव अपनी विभिन्न प्रकृति के कारण सांसारिक जीवन में प्रवृत्त रहता है। जब वह अपने कर्तव्यों, सत्कर्मों तथा सद्व्यवहारों से त्याग का मार्ग अपनाता है, तब वह निवृत्त हो जाता है। विश्व तथा उसके पदार्थों से यह निवृत्ति उसे आध्यात्मिकता की ओर ले जाती है। वह यहाँ प्रवृत्ति और निवृत्ति में समन्वय स्थापित करता है। इस स्थिति में वह सभी बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है तथा चारों पुरुषार्थों के महत्व और अन्तर को समझने लगता है। पुरुषार्थ सम्बन्धी यह ज्ञान उसके व्यक्तित्व का निर्माण और विकास करता है। इस दृष्टि से पुरुषार्थ मानव जीवन के समग्र स्वरूप का उन्नयन करता है तथा मानव जीवन को नियमित, संयमित और निर्देशित करता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से समन्वित पुरुषार्थ व्यक्ति अपने निवृत्तिमूलक व्यक्तित्व का निर्माण करता है, जिस कारण व्यक्ति धर्म का अनुसरण करते हुए सांसारिक सुख का उपभोग करता है और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। अतः स्पष्ट है कि हिन्दू नीतिशास्त्र के चार स्तम्भ हैं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। इस चतुर्वर्ग में नैतिक, भौतिक और आध्यात्मिक तत्वों का अनुपम समन्वय है।
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- प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
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- प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
- प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
- प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
- प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?